Wednesday 11 June 2014

तुझे प्रणाम

पलक भींचे,मुट्ठी बाँधे,
जब आई मैं इस दुनिया में,
तेरे स्नेहिल छाया ने ढौर दिया मुझे,
तेरे ममता के स्पर्श ने,
सहलाया मुझे,
पग-पग ठोकर खाती,
दौड़ती-ठिठकती मैं,
तू सहारा देती, हुँकार भरती,
आगे-आगे ठेलती रही मुझे,
एक पुलक सी भरी मैं,
दुनिया की भीड़ में खोती गई,
तू मेरे हर निशान को संजोते रही,
हर पल,हर डगर की,
तू पहचान मेरी,
मेरी राही,मेरी सहचर,
सब तू हीं रही,
मैं अनजान अबोध,
न तुझे पहचान सकी,
हाय!कैसी ये है बिडम्बना,
तेरे प्रेमायुक्त आलिंगन को तरसती रही,
तुझे जो नाम दिया जग ने,
उससे डरते रही,भागते रही,
पर हे शाश्वत सत्य,
तू तो अटल है,
तू ही तो जीवन पर्यन्त साथ देते रही,
बाँहे पसारे तू खड़ी है सामने,
कैसा बंधन,अब कैसी बाधा,
हे मौत! मेरी पथदर्शक,


Tuesday 3 June 2014

कविता वर्मा जी की कहानी-संग्रह पे मेरी समीक्षा

 "कविता वर्मा जी"की कहानियों का संग्रह "परछाईओं के उजाले"मेरे हाथ है। काफी प्यार और सम्मान से इन्होने किताब भेजी है और काफी मशक्कत भी सहा। नतीज़तन  मैं एक-एक कहानी दीमक की तरह  चाट गई हूँ। कविताजी मेरी दोस्त,शुभचिंतक हैं और जितनी प्यारी ये हैं उतनी ही कशिश भरी इनकी हर कहानी है। सहज-सरल शब्दों में इतनी आत्मीयता से परिवार -समाज की ऐसी घटनाओं को परोसी हैं कि लगता है, ऐसे से तो हम रोज़ रूबरू होते हैं। 
      "एक नई शुरुआत" में आज की युवापीढ़ी को इंगित किया गया है की वो इतनी समझदार है कि  जानती है कि अपने मान-सम्मान के लिये कैसे कदम उठाने है। "जीवट"कहानी में बताया गया है कि भले हीं औरत राह भ्रस्ट हो जाये पर जीत हमेशा मातृत्व की ही होती है। "सगा -सौतेला" में  परिवार के प्रेम को दिखलाया गया है,  खून कैसे जोर  मारता  है अपनों के लिये इसे भी इंगित किया गया है। "निश्चय"कहानी में मंगला का सीधापन और निश्छलता को ठगती मालकिन को दिखलाया गया है। "पुकार"कहानी में उस सम्भावना को दिखलाया गया है जहाँ सुनने में काफी देर लगा दी गई हो। 
"लकीर"कहानी में दिखलाया गया है की कुछ लकीर सामाजिक मान्यताओं के बीच ऐसे खींची जाती है कि मिट के भी नहीं मिटती । "एक खालीपन अपना सा" कहानी में नई पीढ़ी की लड़की अपनी माँ की बंधी जिंदगी देख निर्णय लेती है की वो भले अकेली  रह जाये पर मर्द की धौंस सहन नहीं करेगी। उम्र का ऐसा पड़ाव जहाँ अपना आत्मविश्वास ,जूझती जिंदगी राहत महसुस  कराती है। "आवरण"कहानी में  संयुक्त परिवार की ऐसी कुनीति को दिखलाया गया है ,जहा मर्द कम  होते हैं और कोई अपने डर  से सबको डरा रखता है। "डर"कहानी एक युवा लड़की और माँ-बाप के उम्र के अनजानों के बीच बनते भावों को दर्शाया गया है।  "दलित ग्रंथि"कहानी सिंबल है की परिवार में भी स्वर्ण-अछूत  पनपते हैं,और रिश्तों के बीच पलते  हैं । "पहचान"कहानी ससुराल में त्रस्त विधवा लड़की कैसे किसी के सहारे खुद को स्थापित करती है। "परछाइयों के उजाले"कहानी इंगित करती है की स्त्री पुरुष की दोस्ती को समझने में समाज अभी भी सक्षम नहीं है । समाज के अनुरूप चलने पे उजाला हासिल है ,अकेले राह पे तो परछाइयाँ भरमाती है ,अनजाना सा  डर  अवश किये रहता है। 
                       तो इतनी कहानियाँ ,और सभी रिश्तों की अलग परिभाषा गढ़ती हुई। कोई भी कहानी महसूस ही नहीं कराती की कुछ कल्पित है। कविता वर्मा जी को बधाई।