Sunday 26 October 2014

मुर्दों का शहर

ये मुर्दों का शहर है,
मैंने सुना था,
देखा मैंने,
गलियाँ-चौराहें-चौबारें,
निरस्त-निरापद,
हर जज्बात है बुझी-बुझी,
मैं उत्फुल्ल-उमंगित,
साँसे ले सकूंगी,
साँसे--लम्बी साँसे,
कोई अवरोध-प्रतिकार नहीं,
तरसता मन मुग्ध है,
अटूट साम्राज्य पर,
हाय!पर ये क्या हुआ?
ऑक्सीजन कहाँ गया,
दम घुटता जा रहा है,
मुर्दे क्या गति से कुंद हैं,
ना अकड़े हैं न ही ठन्डे हुये,
तो जिंदगी से कटे हुये 'सजीव',
प्राणवायु क्यों हरे जा रहे हो?
मैं भी शायद मुर्दा हो सकूँ,
तुम्हारी जमात में शामिल हो सकूँ,
क्या इस शहर की यही पहचान है,
कोई स्पंदन-सुगबुगाहट नहीं,
खामोशियाँ तुम्हे हो प्यारी,
मुझे तो आज खुलकर हँस लेने दो,
प्राणवायु दे दो मुझे,
मैं  पथिक हूँ राह की,
एक याद लिये आई थी,
एक याद लिये चली जाऊंगी।