Monday 10 November 2014

कविता----जंगल अंतस की

जंगल से गुजरते सोच रही,
चलते देख रही,
जंगल सम्मोहित करता है,
पेड़ -दर-पेड़,दरख्त के फैले सिलसिले,
चर्र-चर्र करती हरी-पीली-लाल पत्तियाँ,
कुछ नवीन-कुछ पुराने,
कुछ पात-कुछ कोपलें,
कुछ आवाज़ें जो फिर-फिर आपको बुलाती है,
जंगल बोलता है,
सर्र-सर्र की आवाज,
ओह!सूं-हाँ की आवाज,
कानो से सटके गुजरती झोंके की आवाज,
कुछ ढूंढती,कुछ बिखरती ,कुछ याद सी आती आवाजें,
जंगल गुनगुनाता है ,जंगल गाता है,
जंगल भटकाता है,जंगल राह  भी दिखा जाता है,
जंगल अंतस में भटके या हम जंगल में भटके 

2 comments:

  1. जंगल की सुन्दर आत्मकथा ....... प्यारी अभिव्यक्ति !!

    ReplyDelete
  2. सुंदर रचना ... जंगल को बखान किया है शब्दों में ...

    ReplyDelete