Tuesday 2 June 2015

पुरुष बन क्या करना विमर्श

आखिर तुम पुरुष ही सिद्ध हुए ,
पति बन के भी तुम पुरुष पहले रहे ,
दोनों ही स्थिति में ,
तुम्हारे लिये ,
औरत......
उपभोग की वस्तु है ,
तन मरे या मन,
क्या सोचना क्या करना विमर्श,
कभी सोचा तुमने,
कितनी विवशताएँ जकड़ती मुझे,
तुम्हारा इंतजार करना,
कितना सताता  मुझे,
तुम सन्देश भेजते,
मैं  आस संजोती ,
निराशा थाती बनती मेरी,
सालों साल गुजरते जाते,
तुम  आते -आते आ न पाते,
भेड़ियें अब तो गांव के सीमा के भीतर,
 बाड़ तक आ पहुंचे हैं,
कितने तो गांव के भीतर डेरा जमाये है,
डर लगता अब मुझे,
मन करता विरोध,
फिर भी धमकी सहती हूँ,
घर-परिवार-बच्चों की खातिर,
तैयार होना है समर्पण को,
मुझे खाके तृप्त हो शांत हो सके. 
तुम आ जाओ ......
पुत्र-पति-पिता बनके,पुरुष बनके नहीं,
तृप्तता उसकी कब खत्म हो जाये कौन जाने,
क्या मैं फिर तैयार हो सकुंगी,
अपने को निवाला  बनते  देखने।

9 comments:

  1. तुम आ जाओ ......
    पुत्र-पति-पिता बनके,पुरुष बनके नहीं,

    सही कहा।

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  2. यह मन की भावनाये हैं। सही है, परंतु लिखना अजीब सा लगता है। एक और सत्य है कि पुरुष और महिला एक दूसरे के पूरक होते हैं। पुरुष पुरुष होता है महिला के लिए और महिला महिला होती है पुरुष के लिए।

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  3. बेहद मार्मिक ,मन बिलकुल भारी हो गया इस दर्द बयाँ को पढ़ कर .
    "क्या मैं फिर तैयार हो सकुंगी,
    अपने को निवाला बनते देखने।"
    ........संवेदना दिल को छू गयी .

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  4. स्त्री की भावनाओं को स्त्री रचनाकार ही सही तरीके से व्यक्त कर सकती है...संवेदनाओं की सहज अभिव्यक्ति

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  5. रिश्तों में जीना ही असल जीना है .. रिश्ते मर्यादा निर्धारित करते हैं ... जिनको तोड़ना केवल ओउसुश साबित करने के लिए उचुत नहीं ... गहरी रचना ...

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  6. बहुत ही अच्‍छी और भावनात्‍मक रचना।

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  7. भेड़ियें अब तो गांव के सीमा के भीतर - बाड़ तक आ पहुंचे हैं - कितने तो गांव के भीतर डेरा जमाये है- डर लगता अब मुझे - मन करता विरोध -फिर भी धमकी सहती हूँ - घर-परिवार-बच्चों की खातिर - तैयार होना है समर्पण को - मुझे खाके तृप्त हो शांत हो सके - तुम आ जाओ - पुत्र-पति-पिता बनके,पुरुष बनके नहीं - तृप्तता उसकी कब खत्म हो जाये कौन जाने - क्या मैं फिर तैयार हो सकुंगी -अपने को निवाला बनते देखने " यह सब मानसिक भावनाओ की अभिव्यक्ति है जो कही जा सकती है, लिखी नही जा सकती है। महिला, अपना घर और पुरुष अपना परिवार आगे बढाने के लिए एकमत होकर एक्सूत्र में बन्धते हैं। जीवन का यही सत्य है। अगर इस सत्य में कुछ असत्य है तो एक दूसरे के साथ बंढना मत रहो। अलग रहकर तो देखो। यह संस्कारवान समाज है और समाज़ के नियम भी होते हैं ।

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  8. बहुत सुन्दर , औरत के मन व्याकुलता , छटपटाहट ,अंदर का कर्तव्य बौध और अपने आप से लड़ती जगडति मनः स्थिति का बहुत मर्मस्पर्शी कवित्त। ये आप ही कागज पर उकेर सकती है अपर्णाजी , साधुवाद

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  9. तुम आ जाओ ......
    पुत्र-पति-पिता बनके,पुरुष बनके नहीं,----
    नारी मन की व्यथा को बेहद भावपूर्ण और प्रभावी अनुभूति के साथ व्यक्त किया है --
    बहुत खूब

    बधाई

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