Friday 17 July 2015

हर साल रमजान का पाक महीना आता है और फिर ईद। अब जबकि पाक महीना खत्म होनेवाला है कितनी यादें याद आती हैं। कोई बोलकर या लिखकर बधाइयाँ पेश करता है ,मैं कुछ चरित्रों को जी लेती हूँ जिनके बगैर शायद बचपन इतना सुखद परवान न चढ़ता। 
मेरे लिये वो मुसलमान नहीं थे बल्कि परिवार थें। दैनिक दिनचर्या के अहम हिस्सा थें। बकरीदनी नानी जो चूड़ी बेचने आती थीं ,चार आँगन का बड़ा सा घर जहाँ पहले वो हम बच्चों के फ़ौज़ को निपटाती थीं तब जाकर आँगन में पसरती थीं। जुम्मा मौसी जो आती तो थीं सब्जी बेचने पर चूड़ा कूटती थीं,उपले पाथती थीं। उनके टोकरी का आधा से ज्यादा गाजर और मटर हमलोग सफाचट कर जाया करते थें। कथिया की नानी जो सरसों का तेल बेचने आती थी हमलोग मुफ्त के चक्कर में तेल मांग कर पूरे केश को तेल से चुपड़ लेते थें।धनई मियाँ दर्जी थें। कोई भी उत्सव या पर्व घर में होने से वे अपनी सिलाई मशीन रिक्शा पे लाड के अपने हेल्पर के साथ हाज़िर। खाना-पीना और बतकही यही २४ घण्टे होते रहती थी। उनका धौंस सभी पे चलता था। एक या दो रंग के कपडे के थान आ गये और पुरे घर का कपडा सील जाता था। धनई मियाँ की खासियत थी कि वे कपडे बचाने में कतई विश्वास नहीं करते थे फलस्वरूप सभी अपने से बड़े ड्रेस में सुशोभित होकर रोते रहते थें। याकूब मियाँ जो सालों भर करनी-फीता ले हमारे घर के निर्माण में लगे रहते थें। 4फीट 8 इंच के ,जिनके लिये हमेशा टेबुल-सीढ़ी तैयार रहता था। गुलाब नाना जो इतने रईस होते हुए भी हमेशा हाथ जोड़े रहते थें,कभी किसी को अपने सामने कभी झुकने न दिये। अशफाक मियां जो हमारे धोबी थें,गदहा लेके आते थें ,हम बच्चों को कभी सैर भी करवा देते थें। शरीफन बुआ जो बूढी थीं झुक कर चलती थीं,पुरे मुहल्ले से उनके लिये कुछ-न-कुछ पहुँचते रहता था। हरसाल बकरीद में वो अपना पाला हुआ बकरा हलाल करवाती थीं और हफ़्तों रोते रहती थीं। सज़्ज़ाद मोची जिनसे हमलोग रोज़ झूठ का जूता सिलवाने जाते थें। अरशद रिक्शेवाला जो बैठे रहने पर हम बच्चों को इस चौक से उस चौक घुमाते रहते थें।इशरतजहाँ जिसके यहाँ सभी के शरीर पर जिन्नात आते थें जो विक्स से डरता था और हमलोगों को कुछ दूर तक खदेड़ता भी था। बदबहास होते थें हमलोग पर फिर दूसरे दिन उसके घर।
परिवारों के बीच तालमेल काफी शफ्फाक तरीके से तय था। बच्चें सभी के लिये सिर्फ बच्चें थें। कितनी यादें कितनी बातें। सच पूछिये तो थाती बनके साथ चलती है। इनमे कितने चरित्र ऐसे हैं जिनसे हरसाल हम चुपके से "ईदी" माँग कर बच्चों के बीच रईस हो जाते थें।

Saturday 4 July 2015

आजकल के दिन-रात इंद्रधनुष सरीखे अपने में सातों रंग समेटे रहते है।  कभी धूप ,कभी छाँव ,कभी नीला आसमान ,कभी धूसर ,कभी उजले बादल तो कभी काले-घनेरे।  रात कभी तारोंवाली ,कभी बादलों से ढंकी ,कभी गरजती-बरसती भयानक तो कभी मंदबयार से सुवासित मस्त करती । जाने कितने तरह का ताना-बाना  बुनती हवा है। इन ताने-बाने से अछूता कौन बच पाता है।साज़िश में शामिल सारा जहाँ है,जर्रे-जर्रे की ये इंतेजा है।  
क्या आलम हैं ,कभी घनघोर वर्षा हो रही तो कभी इतरा-इतरा के हलके फुहार ,कभी आंसू बन रहे वर्षा तो कभी राहत दे जा रहे हैं बूंद । जाने कितनी दुआओं को समेटे  बूंदें इतराते हुए गगन  से झरती है।   कभी  रूहों में बसी मोहब्बत के विरह के आंसू लगते हैं तो कभी  लगता की दीवानों की चाहत की प्यास बुझाने ये बूंद-बूंद टपक ,ताप मिटा राहत पहुंचा जा रहें । बादलों ने हवाओं के जरिये धरा को जो संदेस भेजें हैं ,यक़ीनन दीवाने तो और मदमस्त हो रहें । गर्म सांसों ने, मौसम की ठंडी हवाओं ने आसमान के सीने पे रूमानियत के दस्तखत किये हैं । नीले आसमान की चादर भींगी है ……. कोई रोया है रातभर यादों में या किसी की कशिश है । बादलों के धेरे में आबद्ध चांदनी में कोई अक्स उभरता है,दिल के तस्वीर की ताबीर लगती है । सुनहली किरणें जब बादलों में अक्स बनाती कभी किरणों की परी कभी सुनहली नज़र आती,कभी घटाओं में अक्स बनाती तो स्याह लिहाफ में सिमटी सफ़ेद परी नज़र आती है । बस हो गया चाहतों के शगूफे …. यूँही नहीं सीने में तूफां मचलते ,ऐसे नहीं उबलते बैठे-बैठे मस्ती के धारे ,ऐसे नहीं सुलगते धीरे-धीरे जज्बात ,ये वर्षा हीं तो है … वर्षा-वर्षा-कितनी वर्षा … क्या न करवा जाये ये वर्षा ……….
बरजोरी पुरबैया छेड़े ,बांधे मेहँदीवाले हाथ ,
हर बौराया सपना,सीख रहा पूरा होने का दांव,
जाने क्या हुआ ,मन उड़ चला हवा के साथ ,
कैसे कहूँ,किससे कहूँ ,जान गया है पूरा गाँव ………….