Wednesday 2 September 2015

सोमवार, 15 सितंबर 2014

अभिशप्त जिंदगी

    देर रात हो गई थी ,फोन बजते चौंक गई मै ,किसी आशंका से मन घबड़ा गया। आलोक था उधर ,आवाज सुनते मन स्थिर हुआ "आंटीजी मै राँची आज आ गया। आपने १५ दिनों पहले ही आने को बोला था ,मै पोग्राम बना रहा था,छुट्टी के लिए आवेदन भी दिया था कि पापा का फोन पहुँचा ,मम्मी कि ख़राब तबियत के लिये तो कुछ सोचे-समझे बिना भागा-भागा आया हूँ।"सुनते व्याकुल सी हो गई मै "क्या हुआ मम्मी को ,इधर बहुत दिनों से उनसे बात भी न हो पाई है।"आलोक कि आवाज दुःख से भारी सी थी "मम्मी ठीक नहीं है आंटी ,न कुछ बोल पा रही है,न कुछ समझ पा रही है ,हॉस्पिटल में हैं वें ,जाने किन अवसादों का धक्का लगा है उन्हें ,ओह आंटी मम्मी कुछ कभी बताई भी तो नहीं ,जो मै देखता उसे सामान्य झगड़ा समझता रहा।"क्या बोलूं मै "क्या तुम्हें बताती बेटा ,सोचती थी बेटा को तनाव दूंगी तो अच्छी तरह पढ़ नहीं पायेगा। मै जब तुम्हारी मम्मी से जानी  कि तुम्हें  कुछ नहीं पता तब  न मै तुम्हे सबकुछ  बताई। मम्मी को सहेजो बेटा ,उसने जिन्दगी में कुछ नहीं पाया है। फोन रखते हुए अहसास हुआ की बिन सोचे-समझे मेरे आँखों से अनवरत आँसू गिरते जा रहे हैं। माथा झन्नाटा खा रहा था की आखिर क्या हुआ होगा इधर कुछ नया क़ी  "विमला"इस हालात को इतनी जल्द पहुँच गई। 
                    विमला शर्मा "मेरे बचपन कि प्यारी सी दोस्त ,जितनी प्यारी सी देखने में ,उतनी ही मीठी स्वभाव की। हमेशा खिलखिल हँसते रहती थी। हमलोगों कि क्लास-टीचर हर वक़्त उसे डांटते रहती थी कि कितना हंसती हो,सारे क्लास को शोरगुल से भरे रहती हो। आज उसकी आवाज कहाँ खो गई,कहाँ सारे  शोर को गिरवी रख आई।हँसी  तो कदाचित २५ सालों से क्रमशः उससे बिछुड़ते चली गई है। बचपन से लेकर हाईस्कूल तक हमलोग साथ-साथ पढ़ें। उसके पापा भी हमारे पापा जैसे सरकारी ऑफिसर थें ,हमलोग एक ही मुहल्ले में कुछ दूरी पे रहते थें। हमलोगों के कारण एक दूसरे के परिवारों में भी दोस्ती हो गई थी। सुबह से देर रात तक हमलोग हंसी-मज़ाक,खेल-कूद और पढाई साथ-साथ करते थें। विमला की  हँसी देख के मै भी हँसती थी बल्कि सच कहूँ  तो हंसना सीखी थी। आज विधि का विधान देखिये की अपने आँसू को खुद गटक जा रही है किसी को पता तक न चलने देती। हाईस्कूल के बाद मै कॉलेज के पढाई के लिये दिल्ली चली गई ,वो पटना में ही रह गई थी। पापा लोगों का भी प्रमोशन- ट्रान्सफर वहाँ से दूसरी जगह हो गया था। कुछ सालों तक हमलोग सम्पर्क में रहें  फिर धीरे-धीरे सम्बन्धों पे हल्का सा गर्त जमते चला गया।  
                    शादी के बाद मै पति के साथ रांची आ गई। बच्चें हुए ,बड़े हुए,पढ़ने लगे औए मै क्रमशः व्यस्त दर व्यस्त होते चली गई। ३-४ सालों पहले बिमला अनायास बाज़ार में मिली ,वो ही मुझे पहचानी,आवाज़ दे बुलाई ,और जिन्दगी की इस ईनायत को हमदोनों ही काफी प्रेम से गले लगा ली। यूँ लगा मानो भगवान अपने ख़ज़ाने से हमदोनो को मालामाल कर दियें। फिर तो बचपन का प्यार फिर रंग में आ गया। रोज़ हमलोग घंटों फोन पर बातें करने लगे। चूँकि घर दूर थें सो कभी-कभी मिलना होता था। घंटों हमलोग बातें किया करते थें पर कभी भी बिमला अपने पति या जिंदगी की  कोई बात नहीं करती थी ,मै बातूनी थी अतः कभी गौर भी न की। मेरे पति एकदिन बिनीता के पति के लिए जिज्ञासा कियें ,मै जब उनका नाम ,पद  बताई तो वे  चौंक गये पर मुझे कुछ नहीं बतायें। कुछ दिनों के बाद मेरे पति ने बताया"तुम्हारी बचपन कि दोस्त तो भई किस्मत कि डूबी हुई है,काफी उलझा  आदमी से जुडी है ,हमेशा पीयें  रहता है ,और स्वभाव का भी काफी बोझिल है। "जाने  क्यूँ विश्वास  करने को मन नहीं किया। बिनीता तो कुछ बताई नहीं पर दिमाग में कुछ कुलबुलाया जरुर की बिनीता कि खिलखिलाहट ख़त्म हो गई है। जो उन्मुक्त सुरभि बिखेरती रहती थी सब कहीं गायब जरुर हो चुके हैं। 
                          अगले दिन फोन करके मैं  उसे बोली "आज आ रही हूँ अपने पति के साथ तुम्हारे यहाँआखिर इनलोगों को भी तो आपस में मिलाया जाय ".सुनते हीं बिनीता टालमटोल और बहानेबाज़ी करने लगी। नहीं बोल सकी मै उसे कुछ भी।कुछ दिनों का अंतराल हो गया था ,मै इधर फोन भी नहीं कर पाई थी। एकदिन बिनीता अपने पति के साथ बाज़ार में मिल गई ,देखते सकपका गई ,मेरे टोंकने पर अपने पति से झिझकते हुए परिचय करवाई। उसके पति का अपने प्रति लोलुप दृष्टि और बिनीता के प्रति अवज्ञा का भाव देख मै समझ गई कि मेरी दोस्त का किस्मत सचमुच का जल चूका है ,मेरे पति गलत नहीं थें। 
             अक्सर बिमला मिलती थी ,फोन पर भी बातें होती थी पर जाने क्यूँ उसे कुरेदकर उसकी जिंदगी को बेपर्दा करना अच्छा नहीं लगा और मै उसे और परदे से ढँक दी। फोन पर ही एकदिन खुश होकर  बताने लगी कि "जानती हो आज बाज़ार में "सौम्या"मिला था ,तुम्हें याद है  ,जानती हो इनकमटैक्स ऑफिसर है इसी शहर में ,४ सालों से है,परिवार भी यही है "मुझे याद आ गया था,सौम्या हमलोगों से २ साल सीनियर था और बिनीता के घर के पास ही रहता था। क्या पता  क्यूँ मुझे बिनीता के पति का सोचकर डर सा लगा पर बिनीता कि ख़ुशी देखकर मै भी खुश हो गई। दिन यूँही गुजरते जा रहे थें। इधर बिनीता का फोन भी नहीं आ रहा था ,मै  भी ज्यादा कुछ ना सोचकर अपने में व्यस्त हो ली। पति ऑफिस निकल चुके थें ,मै दाई-नौकरों को काम  में लगा बाहर धुप में बैठी ही थी कि बिनीता को गेट खोल के अन्दर आते देखी। खुश हो गई अनायास अपने यहाँ देखके  उसे,पास आई तो मै मै चौंक के खड़ी हो गई,अस्त-व्यस्त ,भौंह के पास पट्टी बंधी हुई ,होंठ के पास कटा हुआ,दोनों हाथ कि केहुनी के पास छिला हुआ। मै कुछ न बोलते हुए उसे बैठाई,चाय-पानी पिलाई और इधर-उधर कि बातें करने लगी   
                    कुछ देर के बाद बिमला फफकने लगी ,गले लगाके उसे आश्वत की तो बताई "सौम्या मेरे लिये,मेरे परिवार के लिये धीरे-धीरे सब जान गया है,बचपन का दोस्त है,फिर जब तुम दिल्ली चली गई थी तब मेरे और करीब आ गया था,वो संचित प्यार शायद मेरी बदकिस्मती देख जग गया,हमेशा मुझे फोन करके बातें करता है और दिलासा देते रहता है,काफी सहारा और ख़ुशी मिलता है की कोई तो मेरे दुःख को समझता है ,मै उससे जाने क्यूँ खुलते चली गई हूँ। पति तो जिसतरह के शंकालु हैं उनसे तो कुछ बताने का सवाल ही नहीं उठता था तो मै सौम्या के लिए क्या बताती। आज सौम्या का एक मैसेज पा लिये हैं मोबाइल पे ,तो मुझे बदचलन ठहरा काफी मारपीट किये मैँ  मैसेज डिलीट करना भूल गई थी "क्या बोलती मै ?बस उसे गले लगा के शांत की पर सोचते रही कि जब बिनीता इतने दिनों से इसतरह की   जिंदगी जी ही रही थी तो क्या जरुरी था सौम्या की सहानुभूति बटोरने की। सौम्या सच में उससे सहानुभूति रखता तो अपने बीबी के साथ उसके घर आके कुछ स्थिति को सम्भालता। वो मर्द कि नज़रिये से देखा तब न उसके लिए नहीं डरा।
                    बिनीता शादी के दूसरे दिन से ही  अपने पति से त्रस्त रही,ससुराल के भी सभी इसी मानसिकता के थें। भगवान का भी न्याय देखिये कि पहली औलाद उसे बेटी दिये जो  अविकसित बुद्धि की और शरीर की  थी। पति सारा दोष बिनीता के मत्थे मढ़ खुद जिम्मेवारियों से हाथ झिटक भोग-विलास में लिप्त हो गया। बिनीता के लिये उसके पति के ख़ज़ाने में घृणा,तिरस्कार के सिवा कुछ न  बचा था। बिनीता के मम्मी-पापा भी कुछ बोलते उसेतो उन्हें भी बेइज्जत करता।बूढ़े हो चुके थें वेलोगतो बिनीता को किसी तरह का सहारा नहीं दे पाते थें।३ सालों के बाद उसे बेटा  हुआ दूसरे संतान के रूप में। उस पे विधाता ने अपनी  हर दया को न्योछावर किया था--सुन्दर,कुशाग्र बुद्धि का और काफी सुशील।बिनीता सबकुछ भूल अपने हर गुण,ज्ञान,पढाई,व्यवहारकुशलता को उसपर न्योछावर कर दी।  बुराई,अवगुण,अपने दुखों से उसे अलग रख पढ़ाते गई ,बेटा हरसाल अव्वल आते गया। अभी पिछले साल कानपुर से आई.आई.टी कर जॉब में आया है। बिनीता से जब उसके बेटा का सुनी थी तब लगा था की चलो इसकी जिंदगी में कुछ तो हरियाली जरुर है। अभी कुछ दिन पहले ही बिनीता के बेटे को सबकुछ विस्तृत रूप से बता दी और उससे अनुरोध भी की "बेटे अब कुछ-कुछ दिन मम्मी को अपने पास भी रखो ,तनाव से मुक्त रहेगी। बहन को उससमय हॉस्पिटल में रखो या कोई और व्यवस्था करो,मोह-ममता वो नहीं समझती ,उसे दिमाग कहाँ की  वो मम्मी के दुःख को समझेगी। उसके पीछे तो तुम्हारी मम्मी अपनी पूरी जिंदगी कुर्बान की है  "   
                     सोच के मन फिर वहीँ खड़ा हो गया की आखिर बिनीता को हुआ क्या?मै हॉस्पिटल भी नहीं गई ,क्या जाने उसकी जिंदगी,उसका भोगा दुःख,मुझे कैसा तो शिथिल,सुन्न बना गया है। ७-८ दिन गुजर चुके हैं इस बीच। उसकी जिंदगी के लिये  सोचने पे मुझे भी कुछ नहीं सूझता ,कोई रास्ता नहीं दीखता ,आखिर वो कैसे निकले इन झंझावतों से। शुरू के कुछेक साल माँ-बाप सोचते हैं की धीरे-धीरे सबकुछ ठीक हो जायेगा ,पर कहाँ कुछ होता है। बाद कि जिंदगी आदतन हो जाती है ,बच्चे बड़े होने लगते हैं,ये शरीर सुविधायों का अभ्यस्त हो जाता है,पर मन तो हमेशा विचलित रहता है,जिंदगी भर मन तरसता है कि एक सहारा रहता जो हाथ पकड़ के उबार लेता। दोषारोपण तो सब करते हैं पर सहारा बनने को कोई तैयार नहीं होता। 
                        फोन पे उधर बिमला का बेटा ही है "आंटी आप आई नहीं,मम्मी अब थोड़ी ठीक है ,हल्का खाना भी ले रही हैं ,मुझे पहचान भी रही हैं और मुझे देखके काफी खुश भी हैं "मेरे बोलने पे बेटा बिनीता को फोन पकड़ाया "कुछ मत पूछना मुन्नू ,मै जल्द ठीक हो जाउंगी ,और सब सौम्या--"अपना नाम सुनते जहाँ रोमाँच हुआ वहाँ सौम्या का नाम सुनते हीं फक्क सी पड़  गई। ओहतो सारे अवसाद कि जड़ वही है।क्यूं बिनीता 'सौम्या" को मना नहीं कर पाई। वो तो शादीशुदा है,हाथ छिटककर कभी भी अलग हो जायेगा। मर्द की  हर चालाकी वो भी कर रहा नहीं तो वो दिली सहानुभूति रखता तो क्या नहीं  कर सकता था। बिनीता क्या सोच के उसे छुपाते गई। बचपन की  आशक्ति जोर मार गई। ये क्या किया बिनीतातुम तो इस आशक्ति के कारन मुझे भी दरकिनारा कर दी थी।  
                          ये मै क्या सोचे जा रही,इतनी संकुचित कैसे हो गई,नहीं बिनीता गलत कहाँ है?एक पुरुष का प्रतिदान एक पुरुष से चाही बस। इतने सालों तक एक अदद पति के साथ रहते हुए भी बिना पति के तो रही। बिनीता कि पूरी जिंदगी कि उपलब्धि आखिर क्या रही--अपमान,पीड़ा-तनाव-तन्हाई। किस्मत का नाम दे उसे समझौता के तराजू पे बैठाया जाय या महानता का जामा पहना छोड़ दिया जाय.मानसिक-शारीरिक तृप्ति हासिल करने का क्या उसे हक़ नहीं?नारीजाति से सिर्फ त्याग-संतोष-इच्छायों का दमन करने की अभिलाषा किया  जायेगा?क्या उसका बेटा  भी ये ग्रहण कर पायेगा कि उसकी माँ अपना बिन पाया सुख कहीं और से हासिल कर सके या उसे मुहैया करवाया जाय ,नहीं न---. तो हे समाज के तथाकथित ठेकदारों ,मुझे बतायें कि जो औरत अभी ५० साल कि भी नहीं हुई वो मरते दम तक बिना शारीरिक और मानसिक सुख के कैसे रहे ??
                                   यही आजतक कि बिनीता कि कहानी है। हर दूसरी जिन्दगी यूँही गुजरती है,उसे सोच के गुन दीजिये तो कहानी बनती है ,पढ़ी-सुनी जाती हैनहीं तो वक़्त के थपेड़ों के साथ मटियामेट हो जाती है।